Friday, April 13, 2012

लकीरें


लकीरें
अपने स्वभाव से चलती हैं

हमेशा नहीं होतीं लकीरें
समानांतर एक-दूसरे के
कि चलती रहें एक साथ
अनंत तक अनादि तक

तिर्यक भी नहीं होती हर रेखा
कि दूसरी को बस
निकल जाए स्पर्श करते हुए

यह भी  ज़रूरी  नहीं
साथ चलती दो लकीरें
कभी-न-कभी निकलेंगी
एक-दूसरे को काटते हुए

किसी आयत या वर्ग का
विकर्ण भी नहीं होतीं सब लकीरें
कि उल्टे-सीधे, आगे-पीछे चलते
एक ही बिंदु पर मिलें हर बार

ऐसा भी बहुधा नहीं होता
कि एक-दूसरे से सटकर चलें ही 
तो लगे
दो नहीं एक ही लकीर है वहां

वक्र चाल ही चलती हैं
अधिकतर लकीरें
एक-दूसरे में मिलती प्रतीत होती हैं
और झट से निकल जाती हैं
एक-दूसरे से दूर
कोई नया मोड़ लेकर

लकीरें कभी नहीं बदलतीं अपना स्वभाव

रिश्तों को लकीरें समझकर चलो तो
आधे दुःख निरर्थक हो जाते हैं

- अजय गर्ग  

इतने ऊँचे उठो


इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिंतन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है!

(द्वारिका प्रसाद महेश्वरी )