Monday, October 22, 2012

डॉ.सिद्धार्थ ... ek Kahani


असंभव !
यह हो ही नहीं सकता।
इतना पागल कोई नहीं होता।
कोई अपनी लगी-लगाई नौकरी भी छोड़ता है क्या?
आकाश से बिजली टूट कर पर्वत की शिलाओं को दरका जाती होगी, तो ऐसा ही होता होगा। ज्वालामुखी फूटकर अपना लावा पृथ्वी के तल पर बहाता होगा तो पृथ्वी के वक्ष पर भी ऐसे ही फफोले पड़ जाते होंगे। समुद्र की लहरें जल का पहाड़ लेकर आती होंगी तो तट की रेत पर इसी प्रकार पछाड़ खा कर गिरती होंगी, जैसे आज उसका मन अपना सिर पटक-पटक कर रो रहा था ...

दामिनी स्कूल के दिनों से ही उनकी कहानियाँ, उपन्यास, नाटक आदि पढ़ा करती थी। वह बिना जाने ही कि उसके अपने मन में भी कुछ लिखने

आत्मगर्भिता


जीत की बिब्बी जोर-जोर से चीखे जा रही थी। “अरी! ओ जीतो जल्दी आ, देख सरदार जी को खाँसी लगी है। भीतर से मुलठ्ठी-मिसरी ले आ। अरी! पानी का गिलास भी लेती आइयो।  नासपिट्टी सारा दिन खेल में लगी रहे है।”
मैं अपने कमरे में बैठी पढ़ रही थी। जीत की बिब्बी की कर्कश पुकार ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। अपनी खिड़की से झाँककर मैंने उनके घर की ओर देखा। अपने घर के बाहर कुर्सी पर बैठे अपने पति की पीठ को बिब्बी जोर-जोर से मल रही थी कि जीत सारा सामान ले कर आ पहुँची थी। सरदारजी अपने कोयले के गोदाम से कोयले की धूल-मिट्टी गले में चढ़ाकर लौटे थे, तभी खाँस रहे थे। सरदारजी की अधपकी दाढ़ी व सिर के बाल सफेद देखकर उनके पकी उम्र का अंदाज़ा होता था। वहीं उनकी बीवी के सारे बाल काले-स्याह व रंग भी काला था। उनकी बड़ी बेटी जीत बारह-तेरह साल की व छोटी वंत उससे दो साल छोटी थी। बिब्बी जम्पर और पेटीकोट पहनकर सारा दिन मोहल्ले में बेधड़क घूमती थी। उसके छोटे देवर का दो कमरों का घर था, सुना था वही उन्हें अपने साथ रहने को लाया था। घर के बाहर

उपलब्धियाँ


अमेरिका के न्यू जर्सी राज्य के इस मृत्यु-गृह में बैठा मैं अपने मन को सामने रखे शव से दूर ले जाने की चेष्टा कर रहा हूँ। सामने ब्रिगेडियर बहल का मृत शरीर पड़ा है। कल ही तो उनकी मृत्यु हुई है।
कोफ़िन यानी शव-पेटी के सामने खड़े पंडित जी और उनकी ओर मुख़ातिब कोई एक दर्जन संबंधी-गण पंडितजी पंजाबी-मिश्रित हिन्दी-अंग्रेज़ी में कुछ-कुछ बुदबुदाते हैं, "नैनम्‍ छिन्दति शस्त्राणि नैनम्‍ दहति पावकः" जैसी को चीज़। उपस्थितों में कोई भी उनकी बात नहीं समझ रहा है, पर सब लोग समझने का बहाना सा बना रहे हैं। उनके पुत्र-पुत्रवधू के मुख पर बेचैनी ज़्यादा, शोक कम है। करीब-करीब वैसे ही भाव सबों के चेहरे पर हैं, पत्नी, बेटी-दामाद, सबके चेहरे पर। एक मित्र और उनकी पत्नी ज़रूर ही शोक-मग्न लग रही हैं। मैं इन लोगों को नहीं जानता। पर ब्रिगेडियर साहब

अपराध बोध


इस बात को काफी अरसा बीत गया है। शायद पैंतीस छतीस साल पहले की बात है। उस समय वे नौ या दस साल का रहा होगा। उसने एक चीनी कहानी पढ़ी थी। वह कहानी तो उसे पूरी तरह से याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि कहानी में एक आदमी शहर से कहीं दूर एक ऐसी जगह फँस जाता है जहाँ दलदल और गंदे पानी तथा फिसलन भरे पत्थरों पर जमी काई और झाड़ियों के सिवा कुछ नहीं था। वो वहाँ से निकलना चाहता है पर निकल नहीं पाता। फिर एक दिन उसकी नज़र अचानक अपने हाथ पर जाती है। उसके हाथ पर काई उगने लगी थी। वो आदमी हाथ पर जम आई काई को नोच कर फेंकता है। लेकिन जितना ही वह आदमी काई को नोच कर फेंकने की कोशिश करता है, उतनी ही वे लिजलिजी काई उसके शरीर के दूसरे हिस्सों पर उगने लगती है। फिर काई के लच्छे उसके पूरे शरीर पर उग आते हैं। वह अपने आप से भागने लगता है। कहानी के अन्त में क्या हुया यह तो उसको भूल गया था पर वह कहानी कई दिनों तक उसके मानस पटल पर छाई रही थी। यहाँ तक की कई बार स्वप्न में वह उस आदमी की जगह अपने को देखता था और डर कर उठ जाता। तब वह उस कहानी का अर्थ पूरी तरह समझ नहीं पाया था।
आज वर्षों पश्चात उसे लगता है उस आदमी के हालात में और खुद उसकी

अंतहीन जीवन यात्रा


पैसों से भरा बैग उठाए बाऊजी आज क्या तनकर चल रहे हैं। मानो उम्र के बीस साल पीछे छोड़ आए हों। आखिर उनकी छाती चौड़ी क्यों नहीं होगी...? चारों बेटों की शादी करके घर में चार चार बहुएँ आ गई हैं। आज ही चौथी बहू दिव्या की डोली आई है। बहुत शानदार शादी हुई है दिल्ली के फाईव स्टार होटल में। भई यह शादी तो पूरे खानदान में एक मिसाल बन गई है। उस के ननिहाल ईरान में हैं। पिता का भी मद्रास में अच्छा ख़ासा व्यापार है उसी के अनुरूप दहेज भी बहुत ला रही थी। अब तो बाऊजी के पास भी बहुत पैसा है उनसे किसी बात में उन्नीस नहीं हैं। बहू के चढ़ावे में गहने भी देखने लायक थे। इसीलिए इस शादी पर बाकी  तीन बहुओं को भी भारी भारी सैट बनवा दिए गए थे। सजी धजी बीरो के भी खुशी के मारे ज़मीन पर पाँव नहीं टिक रहे हैं।

कभी वो भी दिन थे जवानी के......जब कपड़े के थान के गठ्ठर साईकिल पर रखकर धनपत घर घर जाकर कपड़ा बेचता था। बीरो से ब्याह करते ही

एक हास्य कविता ......


बोर्ड की परीक्षा में
हाई स्कूल की कक्षा में
एक भाई साहब
मेज पर चाकू गाड़े
परीक्षा देने में तल्लीन थे ।
निरीक्षक ने देखा
पहले खिसिआया
फिर झल्लाया
अंत में छात्र के समक्ष
करबद्ध हो कर
धीरे से बड़बड़ाया ।
हे आर्य ! हे कुरुश्रेष्ठ 
आप कॉपी रूपी रणक्षेत्र में
युद्ध खंजर से क्यूं लड़ रहे हैं ?
कॉपी पर जूझ रहा छात्र
गुरू को कुपित नेत्रों से घूर कर
ज़ोर से चिघांड़ा ।
हे विद्यापति ! हे गुरूवर !
भगवान ने आपको
दो आंखें मुफ्त  में दी,
ऊपर से आपने
लालटेन भी लगा ली ।
पर आप ये न समझ पाये
कि मैंने चाकू
प्रश्नपत्र  पर क्यूं गाड़ा है ।
हे विद्यानिधि !
आपके पंखे में रेग्युलेटर नहीं है ।
ये तीन पंखों की चिरईया
फुल स्पीड पर फड़फड़ा रही है ।
मेरा प्रश्न  पत्र
इसकी तीव्र वायु से
उड़ा जा रहा था ।
अतः
मैंने इसकी लाश  पर
चाकू गाड़ कर
इसको उड़ने से वंचित कर दिया है ।
और कोई बात नहीं
ये तो मात्र पेपरवेट है ।

(K.M. Mishra)